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Baal Guru

Hindi, Paperback Novel by Satish Shukla

'बाल-गुरू' एक आत्म-कथात्मक अभिव्यक्ति है ,जिसमें कथानक का मुख्य पात्र बुस्सैन ,जो किशोर वय को प्राप्त हो रहा है ,अपने से उम्र में छोटे किन्तु कुशाग्र सहपाठी को मित्र बना लेता है l बुस्सैन  की ग्रामीण परवरिश और मित्र की कस्बाई संस्कृति आपस में घुलने लगती है l बुस्सैन का बाहुबल और मित्र का बुद्धिबल परस्पर घनिष्टता का कारण बन जाता है l इसके बाद मित्र के नन्हें मस्तिष्क में बुस्सैन के किशोर विचार प्रवेश करने लगते हैं और कथानक में हर-दिन एक नया काण्ड जुड़ता जाता है l 'बाल-गुरू' ऐसी-ही जीवन्त घटनाओं की एक लयपूर्ण श्रृंखला हैl यह स्कूल की शरारतों , अपरिपक्व उम्र की यौन-वर्जनाओं और भ्रान्तियों का ऐसा दस्तावेज़ है जो ऐसे सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं की ओर ध्यानाकर्षण करता है ,जिनके बारे में आज-भी लोग खुलकर बात करने से कतराते हैं l यही दोहरी मानसिकता अंत में व्यक्तित्व की कमजोरी बन जाती है l

            कृति के अनेक प्रसंग पाठक को उसके बचपन में ले जाने में सक्षम हैं l तत्समय समाज में प्रचलित मान्यतायें और व्यवहार पाठक को छः दशक पीछे ले जाते हैं l उस वक़्त भी  दैहिक-शोषण और यौन-सम्बन्धों में गर्माहट के लिए बाज़ारू औषधियों का प्रयोग आम था जो कि निम्न मध्यम-वर्गीय मानसिकता को उजागर करता है l कथानक की एक सशक्त पात्र रतना द्वारा बुस्सैन की देह का बलात-दोहन, बुस्सैन का प्रेमिका के लिये रोज़ कुँए से पानी खींचना,यौन-सम्बन्धी पुस्तकों का पढ़ना-पढ़ाना , नग्न-चित्रों के द्वारा यौनिक-मानसिकता का उद्वेलन ,धूम्रपान, स्कूल के चपरासी से दोस्ती ,सामाजिक अंध-विश्वास आदि अनेक प्रसंग रोचक-शैली में वर्णित हैं l

                          स्कूली-वातावरण की सजीवता, बब्बू चपरासी और चोंगेवाले के प्रसंगों से बुस्सैन  की ग्रामीण-मानसिकता सजीव हो उठी है l कक्षा का वातावरण बुस्सैन के माध्यम से पाठक को चलचित्र की तरह आकर्षित करेगा lबुस्सैन के मामा का पारिवारिक जीवन तथा पत्नी की संतानहीनता का दंश भी स्वाभाविकता से परे नहीं है l'घंटा' एक प्रकार की लाक्षणिक गाली है,जिसके सतत प्रयोग से बुस्सैन का सामाजिक परिवेश व्यक्त होता है l उसकी पारिवारिक स्थिति दर्शाती है कि विपन्नता तथा स्थानाभाव के कारण उसका किशोर मन सेक्स की ओर आकृष्ट होता है l 'फ्रायड ' के अनुसार 'सेक्स' मानसिकता की स्थिति पर अधिक निर्भर करता है l 'कार्ल मार्क्स' ने आर्थिक विषमता को संस्कार-भ्रष्ट होने का बहुत बड़ा कारण माना है l

              कथानक में मंगलाचरण से उपसंहार तक भाषा-शैली की चित्रात्मकता अप्रतिम है l यह पढ़ाई पर वातावरण और संगत का प्रभाव भी  दर्शाता है l इसमें कस्बाई संस्कृति,सिनेमा,ग्रामीण-मेलों तथा क्षेत्रीय बाज़ार-हाट का मनोहारी दिग्दर्शन है,जो पाठक को अनायास-ही पुराने वक़्त में खींच ले जाता है l यह कृति कई अनदेखे किये हुए पहलुओं से बड़ी बेबाक़ी से रूबरू कराती है...!!! 


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